..
लाला भगतराम धूप में तख्ते पर बैठे हुक्का पी रहे थे। उनकी छोटी लड़की गोद में बैठी हुई धुएं को पकड़ने के लिए बार-बार हाथ बढ़ाती थी सामने जमीन पर कई मिस्त्री और राजगीर बैठे हुए थे। भगतराम पद्मसिंह को देखते ही उठ खड़े हुए और पालागन करके बोले– मैंने शाम ही को सुना था कि आप आ गए। आज प्रातःकाल आने वाला था, लेकिन कुछ ऐसा झंझट आ पड़ा कि अवकाश ही न मिला। यह ठेकेदारी का काम बड़े झगड़े का है। काम कराइए, अपने रुपए लगाइए, उस पर दूसरों की खुशामद कीजिए। आजकल इंजीनियर साहब किसी बात पर ऐसे नाराज हो गए हैं कि मेरा कोई काम उन्हें पसन्द नहीं आता। एक पुल बनवाने का ठेका लिया था। उसे तीन बार गिरवा चुके हैं। कभी कहते हैं, यह नहीं बना, कभी कहते हैं, वह नहीं बना। नफा कहां से होगा, उल्टे नुकसान की संभावना है। कोई सुनने वाला नहीं है। आपने सुना होगा, हिन्दू मेंबरों का जलसा हो गया।
पद्मसिंह– हां, सुना और सुनकर शोक हुआ। आपसे मुझे पूरी आशा थी। क्या आप इस सुधार को उपयोगी नहीं समझते?
भगतराम– इसे केवल उपयोगी ही नहीं समझता, बल्कि हृदय से इसकी सहायता करना चाहता हूं, पर मैं अपनी राय का मालिक नहीं हूं। मैंने अपने को स्वार्थ के हाथों में बेच दिया है। मुझे आप ग्रामोफोन को रेकार्ड समझिए, जो कुछ भर दिया जाता है, वही कह सकता हूं और कुछ नहीं।
पद्मसिंह– लेकिन आप यह तो जानते हैं कि जाति के हित स्वार्थ से पार्थक्य होनी चाहिए।
भगतराम– जी हां, इसे सिद्धांत रूप से मानता हूं, पर इसे व्यवहार में लाने की शक्ति नहीं रखता। आप जानते होंगे, मेरा सारा कारबार चिम्मनलाल की मदद से चलता है। अगर उन्हें नाराज कर लूं तो यह सारा ठाठ बिगड़ जाये। समाज में मेरी जो कुछ मान-मर्यादा है, वह इसी ठाठ-बाट के कारण है। विद्या और बुद्धि है ही नहीं, केवल इसी स्वांग का भरोसा है। आज अगर कलई खुल जाए, तो कोई बात भी न पूछे। दूध की मक्खी की तरह समाज से निकाल दिया जाऊं। बतलाइए, शहर में कौन है, जो केवल मेरे विश्वास पर हजारों रुपए बिना सूद के दे देगा, और फिर केवल अपनी ही फिक्र तो नहीं है। कम-से-कम तीन सौ रुपए मासिक गृहस्थी का खर्च है। जाति के लिए मैं स्वयं कष्ट झेलने के लिए तैयार हूं, पर अपने बच्चों को कैसे निरवलंब कर दूं?
जब हम अपने किसी कर्त्तव्य से मुंह मोड़ते हैं, तो दोष से बचने के लिए ऐसी प्रबल युक्तियां निकालते हैं कि कोई मुंह न खोल सके। उस समय हम संकोच को छोड़कर अपने संबंध में ऐसी-ऐसी बातें कह डालते हैं कि जिनके गुप्त रहने ही में हमारा कल्याण है। लाला भगतराम के हृदय में यही भाव काम कर रहा था। पद्मसिंह समझ गए कि आशा नहीं। बोले– ऐसी अवस्था में आप पर कैसे जोर दे सकता हूं? मुझे केवल वोट की फिक्र है, कोई उपाय बतलाइए, कैसे मिले?
भगतराम– कुंवर साहब के यहां जाइए। ईश्वर चाहेंगे तो उनका वोट आपको मिल जाएगा। सेठ बलभद्रदास ने उन पर तीन हजार रुपए की नालिश की है? कल उनकी डिगरी भी हो गई। कुंवर साहब इस समय बलभद्रदास से तने हुए हैं। वश चले तो गोली मार दें। फंसाने का एक लटका आपको और बताए देता हूं। उन्हें किसी सभा का प्रधान बना दीजिए। बस, उनकी नकेल आपके हाथ में हो जाएगी।
पद्मसिंह ने हंसकर कहा– अच्छी बात है, उन्हीं के यहां चलता हूं।
दोपहर हो गई थी, लेकिन पद्मसिंह को भूखे-प्यास न थी। बग्घी पर बैठकर चले। कुंवर साहब बरुना के किनारे एक बंगले में रहते थे। आध घंटे में जा पहुंचे।
बंगले के हाते में न कोई सजावट थी, न सफाई। फूल-पत्ती का नाम न था। बरामदे में कई कुत्ते जंजीर में बंधे खड़े थे। एक तरफ कई घोड़े बंधे हुए थे। कुंवर साहब को शिकार का बहुत शौक था। कभी-कभी कश्मीर तक चक्कर लगाया करते थे। इस समय वह सामने कमरे में बैठे हुए सितार बजा रहे थे। एक कोने में कई बंदूकें और बर्छियां रखी हुई थीं। दूसरी ओर एक बड़ी मेज पर एक घड़ियाल बैठा था। पद्मसिंह कमरे में आए, तो उसे देखकर एक बार चौंक पड़े। खाल में ऐसी सफाई से भूसा भरा गया था कि उसमें जान-सी पड़ गई थी।
कुंवर साहब ने शर्माजी का बड़े प्रेम से स्वागत किया– आइए, महाशय, आपके तो दर्शन दुर्लभ हो गए। घर से कब आए?
पद्मसिंह– कल आया हूं।
कुंवर– चेहरा उतरा हुआ है, बीमार थे क्या?
पद्मसिंह– जी नहीं, बहुत अच्छी तरह से।
कुंवर– कुछ जलपान कीजिएगा?
पद्मसिंह– नहीं क्षमा कीजिए, क्या सितार का अभ्यास हो रहा है?
कुंवर– जी हां, मुझे तो अपना ही सितार पसंद है। हारमोनियम और प्यानो सुनकर मुझे मतली-सी होने लगती है। इन अंग्रेजी बाजों ने हमारे संगीत को चौपट कर दिया, इसकी चर्चा ही उठ गई। जो कुछ कसर रह गई थी, वह थिएटरों ने पूरी कर दी। बस, जिसे देखिए, गजल और कव्वाली की रट लगा रहा है। थोड़े दिनों में धनुर्विद्या की तरह इसका भी लोप हो जाएगा। संगीत से हृदय में पवित्र भाव पैदा होते हैं। जब से गाने का प्रचार कम हुआ, हम लोग भाव-शून्य हो गए और इसका सबसे बुरा असर हमारे साहित्य पर पड़ा है। कितने शोक की बात है, जिस देश में रामायण जैसे अमूल्य ग्रंथ की रचना हुई, सूरसागर जैसा आनंदमय काव्य रचा गया, उसी देश में अब साधारण उपन्यासों के लिए हमको अनुवाद का आश्रय लेना पड़ता है। बंगाल और महाराष्ट्र में अभी गाने का कुछ प्रचार है, इसीलिए वहां भावों का ऐसा शैथिल्य नहीं है, वहां रचना और कल्पना-शक्ति का ऐसा अभाव नहीं है। मैंने तो हिन्दी साहित्य को पढ़ना ही छोड़ दिया। अनुवादों को निकाल डालिए, तो नवीन हिन्दी साहित्य में हरिश्चन्द्र के दो-चार नाटकों और चन्द्रकान्ता सन्तति के सिवा और कुछ रहता ही नहीं। संसार का कोई साहित्य इतना दरिद्र न होगा। उस पर तुर्रा यह है कि जिन महानुभावों ने दो-एक अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद मराठी और बंगला अनुवादों की सहायता से कर लिए, वे अपने को धुरंधर साहित्यज्ञ समझने लगे हैं। एक महाशय ने कालिदास के कई नाटकों के पद्यबद्ध अनुवाद किए हैं, लेकिन वे अपने को हिन्दी का कालिदास समझते हैं। एक महाशय ने ‘मिल’ के दो ग्रंथों का अनुवाद किया है और वह भी स्वतंत्र नहीं, बल्कि गुजराती, मराठी आदि अनुवादों के सहारे, पर वह अपने मन में ऐसे संतुष्ट हैं, मानो उन्होंने हिन्दी साहित्य का उद्धार कर दिया। मेरा तो यह निश्चय हो जाता है कि अनुवादों से हिन्दी का अपकार हो रहा है। मौलिकता को पनपने का अवसर नहीं मिलने पाता।
पद्मसिंह को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुंवर साहब का साहित्य से इतना परिचय है। वह समझते थे कि इन्हें पोलो और शिकार के सिवाय और किसी से प्रेम न होगा। वह स्वयं हिन्दी साहित्य से अपरिचित थे, पर कुंवर साहब के सामने अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते संकोच होता था। उन्होंने इस तरह मुस्कुराकर देखा, मानो यह सब बातें उन्हें पहले ही से मालूम थीं, और बोले– आपने तो ऐसा प्रश्न उठाया, जिस पर दोनों पक्षों की ओर से बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय मैं आपकी सेवा में किसी और ही काम से आया हूं। मैंने सुना है कि हिंदू मेंबरों के जलसे में आपने सेठों का पक्ष ग्रहण किया।
कुंवर साहब ठठाकर हंसे। उनकी हंसी कमरे में गूंज उठी। पीतल की ढाल, जो दीवार से लटक रही थी, इस झंकार से थरथराने लगी। बोले– सच कहिए, आपने किससे सुना?
पद्मसिंह इस कुसमय हंसी का तात्पर्य न समझकर कुछ भौंचक-से हो गए। उन्हें मालूम हुआ कि कुंवर साहब मुझे बनाना चाहते हैं। चिढ़कर बोले– सभी कह रहे हैं, किस-किस का नाम लूं?
कुंवर साहब ने फिर जोर से कहकहा मारा और हंसते हुए पूछा– और आपको विश्वास भी आ गया?
पद्मसिंह को अब इसमें कोई संदेह न रहा कि यह सब मुझे झेंपने का स्वांग है, जोर देकर बोले, अविश्वास करने के लिए मेरे पास कोई कारण नहीं है।
कुंवर– कारण यही है कि मेरे साथ घोर अन्याय होगा। मैंने अपनी समझ में अपनी संपूर्ण शक्ति आपके प्रस्ताव के समर्थन में खर्च कर दी थी। यहां तक कि मैंने विरोध को गंभीर विचार के लायक भी न सोचा। व्यंग्योक्ति ही से काम लिया। (कुछ याद करके) हां, एक बात हो सकती है। समझ गया। (फिर कहकहा मारकर) अगर यह बात है, तो मैं कहूंगा कि म्युनिसिपैलिटी बिल्कुल बछिया के ताऊ लोगों से ही भरी हुई है। व्यंग्योक्ति तो आप समझते ही होंगे। बस, यह सारा कसूर उसी का है। किसी सज्जन ने उसका भाव न समझा। काशी के सुशिक्षित, सम्मानित म्युनिसिपल कमिश्नरों में किसी ने भी एक साधारण-सी बात न समझी। शोक! महाशोक!! महाशय, आपको बड़ा कष्ट हुआ। क्षमा कीजिए। मैं इस प्रस्ताव का हृदय से अनुमोदन करता हूं।
पद्मसिंह भी मुस्कुराए, कुंवर साहब की बातों पर विश्वास आया। बोले– अगर इन लोगों ने ऐसा धोखा खाया, तो वास्तव में उनकी समझ बड़ी मोटी है। मगर प्रभाकर राव धोखे में आ जाएं, यह समझ में नहीं आता, पर ऐसा मालूम होता है कि नित्य अनुवाद करते-करते उनकी बुद्धि भी गायब हो गई।
पद्मसिंह जब यहां से चले, तो उनका मन ऐसा प्रसन्न था, मानो वह किसी बड़े रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। कुंवर साहब के प्रेम और शील ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।